लेखनी कहानी -05-Jan-2023 (27) अंधे की लकड़ी ( मुहावरों की दुनिया )
शीर्षक = अंधे की लकड़ी
वो दिन सब का हसीं मज़ाक करते गुज़र गया था। राधिका ने बहुत सारे पल चुरा लिए थे, जिन्हे वो शायद कभी भूलना नही चाहेगी, आशीष भी अपने गांव आकर बहुत खुश था, बहुत पुरानी यादें ताज़ा हो गयी थी उसकी
लेकिन अभी भी वो अपने पिता की नाराज़गी दूर नही कर पाया था, और जो जायज भी थी, क्यूंकि अब वो भी गांव की हालात देख रहा था, क्यूंकि वहाँ का सरकारी अस्पताल तो बस नाम का था, सारे डॉक्टर बस हाजिरी लगाने आते थे उसके बाद अपने अपने क्लिनिक पर चले जाते है, जो की उन्होंने शहरों में बना रखे है
आशीष ये सब सोच ही रहा था की उसके मोबाइल पर किसी का मैसेज आया, जिसे देख वो खुश हो गया
"क्या हुआ आशीष किसका मैसेज है?" राधिका ने पूछा जो पास में ही बैठी थी
"मानव बेटा, मानव, कहा हो तुम " आशीष चीखता हुआ बाहर आया
"क्या हुआ? क्यूँ इस तरह मानव को बुला रहा है " सुष्मा जी ने पूछा
"जी पापा, क्या हुआ? मैं बाहर खेल रहा था " मानव ने कहा जो की उसकी आवाज़ सुन आया था
"बेटा मानव, तुम्हारे लिए खुशखबरी है, तुम्हारे स्कूल से मैसेज आया था, तुम्हारी एक हफ्ते की छुट्टियां और बढ़ गयी है, तुम्हारे स्कूल में रेनोवेशन चल रही है, जिसके चलते एक हाफ्ता और मिल गया तुम्हे अपनी छुट्टियां एन्जॉय करने का " आशीष ने कहा
"सच पापा, ये तो बहुत अच्छा हुआ " मानव ने कहा और अपने पिता को गले लगा लिया
"आप भी रुकेंगे न, हमारे साथ कही आप चले तो नही जाएंगे" मानव ने पूछा
"ये सवाल सुन वहाँ थोड़ी देर ख़ामोशी पसर गयी
"बोलिये न पापा, आप भी रुकेंगे न " मानव ने दोबारा पूछा
राधिका ने उसकी तरफ देखा, सुष्मा जी ने भी आशीष की तरफ देखा यहां तक की दीन दयाल जी ने भी उसकी तरफ देखा जिनके लफ्ज़ तो नही लेकिन आँखे कह रही थी की मत जाओ कुछ दिन और टहर जाओ
उन सब की निगाहो को पढ़ कर सामने खड़े आशीष ने जो उत्तर दिया उसके बाद सबके चहरे खिल गए वो बोला " जब किस्मत मौका दे रही है, जिंदगी के कुछ पल अपनों के साथ बिताने का तो कौन कम्बख्त जाना चाहएगा, इसलिए मैं भी नही जाऊंगा, अब हम सब साथ ही जाएंगे, और माँ इस बार तुम भी हमारे साथ चलोगी "
"म,,, म,, मैं कैसे,, मैं और तेरे पिता जी यही ठीक है, हमें नही जाना उन दम घुटने वाली माचिस के डिब्बो जैसे दिखने वाले घरों में रहने, हम यही ठीक है " सुष्मा जी ने कहा
"ओह हो माँ! तुम भी न, उन्हें फ्लैट कहते है " आशीष ने कहा
"हाँ, हाँ जो भी कहते हो, बस तुम लोग आते रहना, हमारे लिए इतना ही काफी है, हम यही पले बड़े है, और यही की मिट्टी में मिल जाना चाहते है " सुष्मा जी ने कहा
"ओह माँ! तुम केसी बाते कर रही हो, अभी तो तुम्हे मानव के छोटे बहन भाई भी देखना है, उन्हें भी अपनी गोदी में खिलाना है " आशीष ने कहा
ये सुन राधिका शर्मा कर वहाँ से चली जाती है
"पागल कही का, देख बहु किस तरह शर्मा कर चली गयी, कुछ भी बोलता है, तू बिलकुल नही बदला " सुष्मा जी ने आशीष के माथे पर हलके से मारते हुए कहा
"मेरे भाई बहन, कहा है वो, मैं कब मिलूंगा उनसे " पास खडे मानव ने कहा
"ये सुन सबकी हसीं छूट गयी, चल अब बता इसे कहा है इसके छोटे भाई बहन," सुष्मा जी ने कहा हस्ते हुए
"आओ बेटा हम चले, गांव की सेर करके आते है, " दीना नाथ जी मानव को अपने साथ ले गए
वो दिन भी अच्छे से गुज़र गया था, और फिर रात आ गयी, आज मानव अपने दादा के पास लेटा था, ताकि उनसे एक और मुहावरें पर आधारित कहानी सुन सके
और वो अगला मुहावरा था " अंधे की लकड़ी "
दादा जी, ये अंधे की लकड़ी का क्या अर्थ होता है, मानव ने पूछा
बेटा जब किसी के जीवन का कोई एक शख्स या कोई वस्तु उसके सम्पूर्ण जीवन का सहारा हो तब उसे ही, अंधे की लकड़ी कहा जाता है
"क्यूंकि अंधे को राह दिखाने का एक मात्र सहारा उसकी लकड़ी ही होती है, अगर वो लकड़ी उससे ले ली जाए, या गुम हो जाए तो वो चलने में असमर्थ रहेगा
आओ तुम्हे कहानी के माध्यम से समझाता हूँ " दीन दयाल जी ने कहा
"ठीक है दादा जी " मानव ने कहा और धयान से कहानी सुनने और समझने लगा
बेटा ये कहानी है, एक औरत की जिसके पति की मृत्यु के बाद उसका बेटा ही एक मात्र सहारा था, जो उसके बुढ़ापे में अंधे की लकड़ी बनता
उस औरत ने अपना तन पेट काट कर उसकी परवरिश की, अपने पिता की तरह साहसी बनाया, वैसे तो वो नही चाहती थी की उसका एक मात्र सहारा उसका बेटा आर्मी ज्वाइन करे, लेकिन शहीद पिता का पुत्र होने के नाते बहादुरी और अपने वतन पर मर मिटने का जज्बा उसके खून में मिला हुआ था
जिसके चलते उसका बेटा भी अपने पिता के नक़्शे कदम पर हो चला, अपने पति का स्वारुप अपने बेटे में देख उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता, वो अपनी ममता एक तरफ रख कर हर बार उसे अपने घर से इस उम्मीद पर विदा करती की वो उसे दोबारा जल्द देख पायेगी,
लेकिन एक बार वो नही बल्कि उसका पार्थिव शरीर आया तब लोगो ने यही कहा की बेचारी इस उम्र में अंधे की लकड़ी खो बैठी, भगवान हिम्मत दे इसे
उस दिन उस का आख़री सहारा उसका बेटा इस दुनिया से चला गया, जिसको उसने अपने खून पसीने से सींचा था,उसकी शादी के ख्वाब सजाये थे, लेकिन देखो पल भर में क्या से क्या हो गया, उसका आखिरी सहारा उसकी अंधे की लकड़ी उससे दूर चली गयी, इतनी दूर जहा से वो कभी वापस भी नही आ सकती
पहले पति और फिर बेटा दोनों को उसने भारत माँ पर कुर्बान कर दिया,
ये कहानी बताते समय दीन दयाल जी की आँखे नम हो गयी थी
जिसे देख मानव बोला " आप रो रहे है, दादा जी "
"नही बेटा, ते तो बस यूं ही निकल आये " दीन दयाल जी ने कहा
"क्या मैं भी अपने माता पिता का सहारा बनऊँगा, बड़े होकर "मानव ने पूछा
"हाँ बेटा तुम भी अपने माता पिता का सहारा, बनना उन्हें कभी अकेला मत छोड़ना, जिस तरह बचपन में तुम्हे अपने माता पिता को देख कर ख़ुशी मिलती है, उसी तरह जब माता पिता भी अपनी उम्र खर्च कर तुम्हे जवान होता देख ते है तब उनकी भी यही ख्वाहिश रहती है की उनके बच्चें भी उनके पास रहे और जब उन्हें उनकी जरूरत हो तब वो उनकी मदद को आ जाये, जी तरह बचपन में माता पिता दौड़े दौड़े बिना किसी चीज की परवाह किए बिना बच्चों के पास आ जाते है, ईश्वर के अलावा माता पिता का आख़री सहारा उसकी औलाद होती है
जिससे उन्हें बड़ी उम्मीदें होती है, लेकिन कभी कभी जब औलाद बागी हो जाती है, उनकी उम्मीदों को तोड़ देती है, उन्हें अपने आप से दूर कर देती है तब एक एक पल उनके लिए कयामत जैसा होता है, इसलिए बेटा तुम कभी भी कुछ ऐसा वैसा न करना जिससे की तुम्हारे माता पिता को तकलीफ हो, भले ही वो तुम्हे नही बताये लेकिन अंदर से वो बहुत टूट जाते है " दीन दयाल जी ने कहा
उनकी बाते बाहर खड़ा आशीष सुन रहा था, जो की मानव को लेने आया था, लेकिन अपने पिता की बाते सुन उसकी उनसे नजरें मिलाने की हिम्मत नही हुयी और वो वहाँ से वापस चला जाता है, राधिका के पूछने पर भी कुछ नही कहता और करवट बदल कर सोने की नाकाम कोशिश करता है
मुहावरों की दुनिया हेतु
सीताराम साहू 'निर्मल'
16-Feb-2023 07:17 PM
Nice 👍🏼
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Milind salve
14-Feb-2023 09:01 PM
👌👌👌
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Alka jain
14-Feb-2023 12:22 PM
बेहतरीन
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